नेहरू का समाजवाद और राजकपूर की फिल्में.
विगत सात दिनों में भारत के दो महानायकों की पुण्य तिथि गुजरी है. 27 मई को नेहरू व 2 जून को राज कपूर की पुण्य तिथि थी. इतिहास का एक ऐसा दौर था, जब भारत से बाहर मात्र दो हीं चेहरे पहचाने जाते थे. वो चेहरे थे -पंडित जवाहर लाल नेहरू व राज कपूर. नेहरू वस्तुतः एक उदार समाजवादी थे. सन् 1929 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये थे. तब से लगायत सन् 1964 के मृत्यु पर्यन्त तक का उनका 35 साला कार्यकाल देशवासियों के लिए आदर्श बना रहा . चीन के साथ हुई लड़ाई में बुरी तरह से हार जाने के बाद भी नेहरू भारतीय जनों के हृदय सम्राट थे. देश के नौजवानों के बीच उनकी लोकप्रियता चरम पर थी. लोग अपने खून से उनका स्केच तैयार कर उनको भेंट किया करते थे. पंचशील व गुटनिरपेक्ष के लिए विश्व उनका सदा ऋणी रहेगा.
नेहरू समाजवादी थे तो राजकपूर नेहरूवादी. पचास के दशक में राजकपूर की आई फिल्में नेहरू के समाजवाद से प्रभावित थीं.इसीलिए राजकपूर नेहरू के समाजवाद के सबसे बड़े सौदागर थे. उनकी बनाई हुई कालजयी समाजवादी फिल्मों में आवारा, श्री 420, जागते रहो, बूट पालिस प्रमुख थीं. आवारा को तत्कालीन सोवियत संघ, पूर्वी योरोप एंव खाड़ी के देशों में अपार लोकप्रियता हासिल हुई. इस प्रकार आवारा की लोकप्रियता ने उसे अघोषित राष्ट्रीय फिल्म बना दिया. मेरा नाम जोकर एक क्लसिकल फिल्म थी, पर उसकी असफलता ने उन्हें तोड़कर रख दिया. उसके बाद से राजकपूर ने बाक्स आफिस पर मशहूर होने वाली फिल्में हीं बनाई. बाबी, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, प्रेमरोग, कल आज और कल आदि. किन्तु पचास के दशक में उनकी समाजवादी फिल्मों ने जो नाम कमाया,वह उनकी अन्य फिल्मों को नहीं मिली. राज कपूर को यह गम रहा कि विदेशों में उनकी फिल्मों ने सफलता के झंडे तो गाड़े, पर अपने हीं देश में उनकी फिल्मों की पहचान नेहरू युग के बाद हुई.
यदि त्रिदेव (राज, दिलीप व देव ) में से किसी एक को प्रतिनिधि नायक अभिनेता चुनना हो तो राजकपूर का नाम सबसे ऊपर होगा. वे अपने आप में अभिनय की एक संस्था थे. क्या नहीं थे वे? अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, सम्पादक सभी कुछ तो थे वे. जब उन्हें दादा साहब फाल्के एवार्ड से नवाजा जा रहा था, तभी उन पर अस्थमा का अटैक पड़ा. राष्ट्रपति ने प्रोटोकॉल को तोड़ नीचे आकर उन्हें यह अवार्ड दिया. राजकपूर उसके बाद से फिर नहीं उठे. 2 जून सन् 1988 को वे चिर निंद्रा में सो गये.
पंडित जवाहर लाल नेहरू चाइना वार के बाद बिल्कुल टूट गये. उन्हें हृदयाघात का पहला हल्का अटैक आया था. दूसरे और तीसरे अटैक के बाद 27 मई सन् 1964 को उनकी मौत हो गई.
मौत का तो एक दिन मुय्यन है. हम सभी को एक दिन जाना तय है, लेकिन जिस लोकप्रियता के चरम पर पंडित नेहरू व राजकपूर पहुंचे, वह अन्यत्र दुर्लभ है.
न भूतो न भविष्यति.
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