फराहम कर रहा हूं, अपनी बरबादी का अफसाना.

मैं fb की इस सभा में भगवान को साक्षी मानकर कह रहा हूं कि जो कुछ कहूंगा, सच कहूंगा ;सच के सिवा कुछ नहीं कहूंगा. मैं शंकर दयाल ओझा आत्मज श्री राम कृष्ण ओझा, ग्राम नवकागांव, पो. झरकटहां (रेवती) ,जिला बलिया का रहने वाला हूं. मेरी शादी शकुन्तला आत्मजा श्री नन्दजी तिवारी, ग्राम व पो. सीताकुण्ड, जिला बलिया वाले से हुई है. मैं शादी का कार्ड fb पर डालने वाला था ताकि सनद रहे, पर कमबख्त इतना बड़ा है कि मोबाइल के स्क्रीन पर नहीं आ पाया. उस समय पत्नी की उम्र 16 और मेरी 19 साल थी. यानी कि हर लिहाज से हम दोनों नाबालिग थे.
मैंने शादी से पहले पत्नी को देखा नहीं था. मुझे यह नहीं पता था कि पत्नी गूंगी या बहरी है, लूली या लंगडी़ है या फिर अंधी है या कानी है. जब कि उसके घर वाले मुझे चाक चौबन्द हालत में देख चुके थे. खैर, आज हीं के दिन अर्थात् 6 जून सन् 1973 को हमारी शादी सम्पन्न हुई. आज हमारी शादी की 43वीं वर्षगांठ हैं. शादी यूं हुई कि हम मंडवे में खुले में तो पत्नी मंडवे में एक चादर की ओट में बैठी थी. मंत्रोच्चार को दुहराता हुए मुझ नीरीह प्राणी को पंडित जी ने आदेश दिया कि कन्या के पैर (दायें या बाएं पैर का अंगूठा कहा था -याद नहीं) का अंगूठा पकड़ो. यह मेरे पुरूष अहम को ठेस पहुंचाने वाली बात थी. मैं चाहकर भी प्रतिरोध नहीं कर पाया, क्योंकि बाबूजी व भाई से डांट खाने का डर था. इसलिए मैंने चादर के अंदर धीरे से हाथ इस आशा से सरका दिया कि पंडित को क्या पता कि मैंने अंगूठा पकड़ा था कि नहीं?  मैंने अंगूठा नहीं पकड़ा, पर साथ बैठी हजामिन (नाईन ) ने बड़ी मुस्तैदी से मेरा हाथ पकड़ा और पत्नी के अंगूठे से स्पर्श करा दिया.
जब सिन्दूर दान का वक्त आया तो मुझे चादर के पार जाना पड़ा. हजामिन ने इस कदर कपड़ा लपेटा था कि केवल दुल्हन की एक इंच मांग हीं नजर आ रही थी. मैंने मांग भरना शुरू किया और समवेत स्वर में महिलाओं ने गाना शुरू किया -
बाबा बाबा पुकारिले , बाबा ना बोलसु रे,
बाबा के बलजोरिया सेनुर बर डालेला रे.
(अर्थात् दुल्हन कह रही है कि मैं अपने पिता को बुला रहीं हूं, पर पिता बोल नहीं रहे हैं. पिता की शह पर हीं यह दुल्हा दबंगई करता हुआ मेरी मांग में सिन्दूर भर रहा है. )
खैर यह आरोप मैं झेलकर चादर के इस पार अपने स्थान पर आकर बैठ गया.
एक शोध के अनुसार पति पत्नी साल में 167 बार लड़ते हैं. इस झगड़े की शुरूआत अक्सर पत्नी करती है. हम दोनों पति पत्नी इसके अपवाद नहीं हैं. हो सकता है कि हम 167 से ज्यादा बार हीं साल में लड़े हों. कभी गिना नहीं. अगले साल भगवान ने मौका दिया तो गिनने की कोशिश करूंगा. मेरी पत्नी आदर्श पत्नी है, क्योंकि अक्सर झगड़े की शुरूआत वही करती है. ये तो ब्रह्मा का वरदान है (मैं अभिशाप नहीं कह सकता) कि पुरूष लड़ते झगड़ते अपनी पूरी उम्र यूं हीं काट देगा, क्योंकि वह पत्नी नामक जीव के बिना नहीं रह सकता.
जब नजर हमारी
रूठ जाएगी.
जब कमर हमारी
झुक जाएगी.
तब भी हम
लड़ते रहेंगे.
हर कीमत पर
झगड़ते रहेंगे .
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