हाफिज खुदा तुम्हारा.
अस्सी के दशक में एम्बेस्डर गाड़ियों का क्रेज अपने चरम पर था. अभिनेता से लेकर नेता तक, फौजी से लेकर मौजी तक, मंत्री से लेकर संतरी तक यह सवारी आम हो गई थी. सड़कों पर इसका एकाधिकार हो गया था. यह भारत सरकार का अधिकृत वाहन हो गया. इस पर VIP और VVIP लोग चढ़ने लगे. दबंग इस पर चढ़ दबंगई करने लगे. पुलिस व सेना ने इसे हाथों हाथ लिया. पुलिस वाली एम्बेसडर सफेद, सेना स्याह और वायुसेना आसमानी रंग से चिन्हित की गई. विरला समूह की हिन्दुस्तान मोटर कम्पनी अस्सी के दशक में 500 गाड़ी प्रतिदिन बनाती थी.
एम्बेसडर कार की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि यह पहाड़, जंगल, मैदान या ऊबड़ खाबड़ हर रास्ते पर चल पड़ती थी. गौरतलब है कि इसके आगे पीछे के प्रोजेक्टेड भाग शाक आब्जर्बर के काम करते थे. यह गाड़ी खुद चोट सहन कर लेती तो , पर उसमें बैठे लोगों को महफूज रखती थी .
सुना है कि उसको मोहब्बत दुआएं देती है,
जो दिल पर चोट तो खाए, मगर गिला न करे.
एम्बेसडर कार हमेशा जमीन से चिपक कर चलती थी. आज तक किसी एम्बेसडर को किसी ने उलटते हुए नहीं देखा .अपराधियों को धर पकड़ के लिए भी यह कार मुफीद थी. इन्हीं गुणों के चलते मैंने अपने गुड़गांव स्थित पुत्र को एम्बेसडर खरीदने का सुझाव दिया, पर उसने कहा कि आजकल नये माडल की गाड़ियां बिल्कुल नये तकनीक के साथ आ रहीं हैं. उसे हीं खरीदूंगा. एम्बेस्डर खरीदने पर मेरे दोस्त मेरा मजाक बनाएंगे,पर मेरा अब भी मानना है कि आज की प्लास्टिक वेस्ड गाड़ियां एम्बेस्डर की मजबूती के आगे कहीं नहीं टिकतीं.
मारुति कम्पनी जब बाजार में आई तो एमबेस्डर वालों को तनिक भी परवाह नहीं हुई,पर जब उनकी बनाई हुई हुई मारुति -800 सड़कों पर सरपट दौड़ने लगी तो एम्बेस्डर वालों की चैतन्यता जागी. यह छोटी चुनौती वाली कम्पनी मारूति बाद में अपने उत्पादों व तकनीक के बल पर देश की सबसे बड़ी कार कम्पनी कहलाई. और बिरला समूह की हिन्दुस्तान मोटर दिन ब दिन छोटी होती गई. रोज 500 एम्बेस्डर बनाने वाली कम्पनी अब दिन के 5 कार बनाने लगी, जब कि मारूति कम्पनी रोजाना 5000 कार बनाने वाली कम्पनी हो गई.
कोठे पर रहने वाले
अब जीने पे आ गए .
आहिस्ता आहिस्ता
अपने करीने पे आ गए.
हिन्दुस्तान मोटर को तब एक और बड़ा झटका लगा जब SPG ने अपने सुरक्षा मानकों पर इसे खरा नहीं पाया. SPG ने BMW की खरीद की सिफारिश की. सरकारी तंत्र द्वारा तिरस्कृत यह गाड़ी कब तक घिसटती. कम्पनी कर्ज के बोझ तले दब गई. छः माह का वेतन कर्मियों का बकाया हो गया. 1942 में प्रथम स्वदेशी कार बनाने वाली यह कम्पनी समय के साथ नहीं चल पाई. इसके आर्थिक नुकसान की भरपाई नहीं हो पाई. कम्पनी ने इस कार को अलविदा कह दिया.
कोलकाता के उत्तर पाड़ा स्थित बिरला ग्रुप की हिन्दुस्तान मोटर कम्पनी ने 65 साल तक एम्बेस्डर कार का उत्पादन किया. आज एम्बेस्डर से भी ज्यादा मंहगी कारें सड़कों पर दौड़ रहीं हैं,पर शाही कार का रुतवा तो इसी कार को मिला. एम्बेसडर कार का आज भी कोई विकल्प नहीं है. वह कोका कोला की तरह अतुलनीय है. RIP एम्बेसडर कार, तुमको हम नहीं भूल पाएंगें.
गुजरा हुआ जमाना,
आता नहीं दोबारा.
हाफिज खुदा तुम्हारा.
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