एक सफर भूलभूलैया तक .

समय सन् 1989 का था. बरेली के बुखारा ग्राम में 14 एकड़ जमीन 20 वीं वाहिनी भा ति सी पुलिस की स्थापना के लिए अर्जित की गई थी. अब निर्माण कार्य शुरू किया जाना था. चूंकि जमीन कृषि वाली थी. इसलिए उस पर निर्माण कार्य से पहले भू उपयोग परिवर्तन (Land use change ) करने की अनुमति आवश्यक थी. मुझे land use change की अनुमति हेतु लखनऊ जाना पड़ा.
जाड़े की रात थी. बस का सफर था. बस की खड़खड़ नीरवता भंग कर रही थी. उस खड़खड़ में खिड़कियों की संधि से तीक्ष्ण ठंडी हवाएँ आकर अंदर उत्पात मचा रही थीं. मेरी सीट दरवाजे के पास थी. कोई सवारी उतरती या किसी और कारण से कंडक्टर जब दरवाजा खोलता तो बस में हवा अनाधिकार प्रवेश करती तो कंपकपी छूट जाती. वस्तुतः यह लड़ाई हमारे ऊनी वस्त्रों और ठंडी हवा के झोंकों के बीच थी, जिसमें मुझ जैसा अदना इंसान पीस रहा था. आज भी उन हवाओं की याद मेरे जेहन में बरकरार है. -
      फिर याद आया एक ठंडी हवा का झोंका,
      सुना रही है फसाने उस दिन की मुझे.
सुबह 3/4 बजे लखनऊ पहुँचा . बस स्टेशन से बारादरी के एक होटल में आकर रात की खुमारी निकाली. सुबह तड़के जा पहुंचे IAS जगजीत सिंह सिरोही के पास, जो हमारे तत्कालीन प्रभारी
Ramendra Singh
के रिश्तेदार थे . बुखारा जमीन की गजट नोटिफिकेशन निकलवाने में इनका विशेष योगदान था. Ramendra Singh, सर ने जो चिट्ठी दी थी उसे उन्हें सौंपा .भू उपयोग परिवर्तन की चिट्ठी भी उन्हें दिखाई. श्री सिरोही ने कहा इसमें अभी वक्त लगेगा. आप चाहें तो इस पत्र को मेरे पास छोड़ जाएं ,मैं  सम्बन्धित विभाग में पहुँचा दूंगा. वैसे आप खुद ले जाएं तो बेहतर होगा ताकि आपको प्रोसीजर का भी पता चल जाए. मुझे उनकी बात जंची. मैं खुद सचिवालय जा कर वह पत्र सम्बन्धित अधिकारी को दे आया .साथ हीं मैंने उनसे त्वरित कार्यवाही का निवेदन भी किया . अब पहुँचा मैं हलवासिया मार्केट. वहाँ रवि ग्रोवर की फोटोग्राफी की अपनी दुकान थी. उन्होंने राजीव गांधी की लद्दाखी ड्रेश में खिंची हुई तस्वीर को इनलार्ज किया था. यह तस्वीर हमारे कमान्डेट ने किसी बड़े अधिकारी को बतौर गिफ्ट भेजी थी , जहां से धन्यवाद का एक डी ओ लेटर आया. लिखा था..You are the man of good taste.  ग्रोवर जी को मैंने पैसे दिए और पावती लेकर चल पड़ा. अब मेरे पास कोई काम नहीं था, सिवाय घूमने फिरने के.
मैं लखनऊ के इमामबाड़ा जा पहुंचा. वहाँ मुझे अपने कस्बे रेवती के नन्हें मियाँ के भानजे से मुलाकात हुई. उसकी नई नई शादी हुई थी. पत्नी के साथ घूमने के लिए इमामबाड़ा आया था. हम दोनों ने साझे का गाइड किया. गाइड ने बताया कि इस इमामबाड़े का निर्माण नवाब आसफुद्दौला ने सन् 1784 में किया था. कहा जाता है कि उस समय भयंकर अकाल पडा़ था. इसलिए नवाब आसफुद्दौला ने यह इमामबाड़ा बनवाया ताकि लोगों को रोजगार मिले और कोई भूख से न मरे .उस दौर में यह कहावत आम थी -
               जिसको न दे मौला,
                उसको दे आसफुद्दौला.
इस इमामबाड़े में आप बिना गाइड के नहीं घुस सकते ,क्योंकि आप अंदर जाकर गुम हो सकते हैं. इसीलिए इसे भूलभूलैया भी कहते हैं. इसमें तकरीबन एक हजार रास्तों का जाल है. यह वास्तु का एक अच्छा नमूना है. इसमें सैकड़ों फीट की दूरी पर फुसफुसाने पर वह ध्वनि दुसरे छोर पर खड़ा व्यक्ति सुन सकता है .इसे बनाने वाले वास्तुकार थे - किफायत उल्ला ,जो ताजमहल बनाने वाले वास्तुकार के सम्बन्धी थे. इमामबाड़े की लागत आई थी -तकरीबन दस लाख रूपए . इमामबाड़े के रख रखाव पर नवाब आसफुद्दौला बाद के दिनों में हर साल पांच लाख रूपये खर्च करने लगे थे. इमामबाड़ा परिसर में एक मस्जिद है, जिसे आसफुद्दौला के नाम पर आसफ मस्जिद कहते हैं. यहाँ लिखा है -इस मस्जिद में दुसरे धर्म के लोगों का प्रवेश निषिद्ध है. टेढ़े मेंढ़े गलियों और सीढीयों वाले इस इमामबाड़े की याद आज भी मेरे जेहन में ताजा है -
उदासी की तमाम वो गलियां ,
इमामबाड़े की भूल भूलैया.
दिशाहीन मन भटकता है,
याद आ रहा वो गलियारा.
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