चपल भादुड़ी -57 सालों से नारी पात्रों का किरदार निभाता एक पुरूष.
1957से पहले चपल भादुड़ी रेलवे में नौकरी करते थे. जात्रा में दिलचस्पी होने के कारण उन्होने रेलवे की नौकरी छोड़ दी.अपने चाहने वालों में चपला रानी के नाम से मशहूर चपल भादुड़ी ने अपना कैरिअर सन् 1958 से बंगाल के एक मुख्य जात्रा समूह से शुरू किया . जात्रा बंगाल में उन नाटक मंडलियों को कहते हैं, जो घूम घूम कर नाटक खेला करती हैं. उस दौरान उन्हें मात्र 75/-रूपये माहवार मिला करते थे. ये वो दौर था, जब औरतें जात्रा में काम नहीं करती थीं. उनका पार्ट भी पुरूषों को हीं करना पड़ता था. चपल भादुड़ी को भी औरतों का पार्ट करना पड़ा.
बाद के दिनों में पुराने हो जाने पर चपल भादुड़ी को 8 हजार रूपए हर माह मिलने लगे थे. वे घूम घूम कर साल के 8 महीने जात्रा खेला करते थे. शेष 4 माह में ये नए नाटक का अभ्यास करते थे. चपल भादुड़ी अक्सर पौराणिक देवियों का रोल निभाते थे. कई लोगों का मानना था कि चपल स्टेज पर मौजूद अन्य महिला अभिनेत्रियों से बीस हीं साबित होते थे. चपल भादुड़ी का कहना था कि जब वे स्टेज पर स्त्री पात्र को जीवंत करते थे तो उस स्त्री की आत्मा उनमें घर कर जाती थी, जिसकी वजह से वे इतना जीवन्त अभिनय कर पाते थे.
साठ के दशक में जात्रा में औरतों की पैठ होने लगी थी. नारी पात्र के अभिनय पर पुरुषों का वर्चस्व कम होने लगा. पुरूष धीरे धीरे नेपथ्य में चलते गए और उनकी भूमिकाएं सिकुड़ने लगी. ऎसे दौर में चपल भादुड़ी अपने जीवन्त अभिनय के बल पर बहुत दिन तक टिके रहे, लेकिन वे अब कब तक टिकते ? लोगों को लगने लगा कि जब एक नारी पात्र इस अभिनय को बखूबी कर सकती है तो पुरूष पात्र की
आवश्यक्ता क्यों?
चपला भादुड़ी के जीवन पर कई फिल्में बन चुकी हैं. इन पर 44 मिनट की एक डाक्यूमेंटरी भी बनाई जा चुकी है. सन् 2010 में एक बंगाली फिल्म में भी वे नारी पात्र को जीवित कर चुके हैं. इस फिल्म में उनकी भूमिका बहुत सराही गई. इस फिल्म को चपल ने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया था.
आज अविवाहित चपल भादुड़ी 77 वर्ष की अवस्था में गुमनामी के दौर में जी रहे हैं . वे एक्का दुक्का जात्राओं में नारी पात्रों का रोल निभा लेते हैं. अपनी बहन के परिवार के साथ किराए के मकान में रह रहे हैं चपल भादुड़ी . आज वे बीमार कलाकारों के लिए बनाए गए बंगाल सरकार के कोष से मात्र 1500/- रूपए की मामूली रकम लेने के लिए है मजबूर हैं .
सांस आखिरी, वक्त आखिरी .
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