टाशी दले का लोसर
इस बार लोसर 12 फरवरी शुक्रवार से शुरू हो रहा है और इसका अवसान 14 फरवरी रविवार को हो रहा है । लोसर तिब्बत के अतिरिक्त भूटान व नेपाल में भी मनाया जाता है । भारत में यह लद्दाख , अरुणाचल , उत्तर काशी , सिक्किम और हिमाचल प्रदेश में भी मनाया जाता है ।
लोसर दो शब्दों से बना है । पहला लो । दूसरा सर । लो का मतलब नया । सर का मतलब साल । मतलब कि नये साल के आगमन पर यह त्यौहार मनाया जाता है । इसकी शुरुआत तिब्बत के नौवें राजा प्यूड गंगयाल ने की थी । उस दौर में तिब्बती लोगों ने पहली बार फसल बोई थी । जब फसल काटकर अनाज घर लाया गया तो सबके चेहरे खुशी से दमक रहे थे । तीन दिनों तक लोगों ने आग जलाकर खुशी का इजहार किया था ।
कालांतर में लोसर का त्यौहार नए साल का प्रतीक बन गया ।लोसर के दिन औरतें पानी के किनारे जातीं हैं । धूप अगरबत्ती जलातीं हैं । घर आकर घरों को दीप से रोशन करतीं हैं । अच्छे अच्छे पकवान बनातीं हैं । छंग ( शराब ) और जौ के सत्तू का गोम्पा ( मंदिर ) में भोग लगाया जाता है । प्रसाद वितरण होता है । जिस साल मौसम ठीक रहता है । चांद के दर्शन हो जाते हैं , वह साल अच्छा माना जाता है ।
लोसर के दिन हुई एकाध छोटी मोटी दुर्घटना शुभ मानी जाती है । इस दिन उत्तर काशी में तो आटे से होली खेली जाती है । लोसर मनाने वाले लोग अपने अपने घरों पर नये पताके फहराते हैं । पुराने पताके उतारे जाते हैं । उन्हें पवित्र नदियों में बहा दिया जाता है ।
मेरी पहली पोस्टिंग श्रीनगर ( जम्मू कश्मीर ) में हुई थी । मैं श्रीनगर के तिब्बतियों के मार्केट से एक स्वेटर खरीदा था । स्वेटर बेचने वाली मेरी हमउम्र थी । मैंने मजाक में उससे पूछा था -
" तिब्बत कब जा रही हो ?"
उसके चेहरे के भाव सख्त हो गये थे । उसका मुंह लाल हो गया था । उसने जवाब दिया था -
" हम अगला लोसर ल्हासा में मनाएंगे ।"
मुझे यह तो पता था कि ल्हासा तिब्बत में है , पर लोसर क्या बला है ? पता नहीं था । बाद में लोसर के बारे में विस्तार से पता चला था । मुझे इतना पता था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा है । वह किसी भी हालत में लोसर मनाने तिब्बत नहीं जा सकती ।
उसके बाद से वह मुझे जब भी मिली , उसकी आंखों में मैंने एक आग हीं देखी । मैंने उसकी दुखती रग पर उंगली रख दी थी । मुझे क्या जरुरत थी उससे पूछने की कि वह तिब्बत कब जा रही है ।
उसके बाद से हमने उससे समझौता करने की काफी कोशिश की , पर बात बिगड़ चुकी थी जो कभी नहीं बनी । वह हर बार मुझसे पेशेवर तरीके से पेश आती । एक बार हमने उससे पूछा था - " तुम्हारा नाम क्या है ?"
उसने शुष्क स्वर में कहा था -
" टाशी दले "
हमने सोचा कि यह उसका नाम होगा , पर बाद में पता चला कि टाशी दले तिब्बती भाषा में नमस्कार को कहते हैं । उसने मुझे टाशी दले कहकर चलता किया था । लेकिन मैं जब तक श्रीनगर में रहा उसे टाशी दले हीं कहता रहा । टाशी दले कहने पर वह तो कुछ नहीं कहती , पर उसके साथ की लड़कियां हंस पड़तीं थीं ।
एक दिन टाशी दले की एक सहेली मिली । वह ललद्दद हाॅस्पिटल से आ रही थी । पता चला कि टाशी दले बीमार है ।वह उसके खैरमकदम के लिए गयी थी । उसने बताया कि जब टाशी दले सिर्फ 4 साल की थी तब उसके माँ बाप उसको तिब्बत से लेकर भागे थे । दलाई लामा भी अपने अनुआइयों के साथ भागे थे । ये लोग रास्ते की दुश्वारियों को झेलते हुए 15 दिनों में भारत पहुँचे थे ।
सहेली बता रही थी कि टाशी दले को बहुत दुःख होता है कि वह लोसर ल्हासा में न मनाकर एक गैर मुल्क में शरणार्थी बनकर मना रही है । लोसर से पहले हर बार टाशी दले बीमार हो जाती है । लोसर बीत जाने के बाद वह धीरे धीरे सामान्य होती है । इस बार भी लोसर आने वाला है । इस बार भी वह बीमार हो गयी है । उसके सीने की धड़कन बढ़ गयी है । मुझे टाशी दले की बहुत फिक्र हुई । मेरा बहुत मन किया कि टाशी दले से हाॅस्पिटल जाकर मिलूं , परंतु उसी समय उसकी सारी पिछली बेरुखियां मुझे याद आ गयीं । फिर उससे मिलने जाने का मन नहीं किया ।
इस घटना को हुए 41 साल के करीब हो गये हैं । हर साल लोसर आता है । मेरी यादों में टाशी दले आज भी बसी हुई है ।मैं सोचता हूँ कि कोई तो लोसर ऐसा आएगा जिसको मेरी टाशी दले तिब्बत के ल्हासा में मनाएगी ।
मैं स्वयं २ बार अवसर मिलने पर भी मानसरोवर नहीं गया। इच्छा थी कि तिब्बत स्वाधीन होने पर जाऊंगा।
जवाब देंहटाएंभगवान करे कि आपकी मनोकामना पूरी हो ।
जवाब देंहटाएंभगवान करे कि आपकी मनोकामना पूरी हो ।
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